श्री परमहंस चालीसा रचनाकार विजयनाथ पाण्डेय स्वर सूरज कृष्ण शास्त्री

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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शताब्दी समारोह


श्रीमत् परमहंस चालीसा


विजयनाथ पाण्डेय


जय स्वामि सर्व समर्थ, दीनानाथ दैन्यविनाशकम् ।

 सच्चितस्वरूप अनूप जय, जय शुद्ध-बुद्धि प्रकाशकम् ।। 

सत्सत सूक्ष्म विराट जय जय जय अनन्त श्री धरम् ।

 जय विश्व बन्धु महा महिम श्री परमहंस धुरन्धरम् ||

जय असीम आनन्द प्रणेता परमहंस प्रभु इन्द्रिय जेता। 

जय सद् वृत्ति विभूषन त्राता। जन मन रंजन शांति विधाता।।

 शुद्ध बुद्ध मुनिवर विज्ञानी काम-क्रोध मद-मुक्त अमानी।।

 ज्ञान-ध्यान-आगार अनूपा चिदानन्द निर्मुक्त स्वरूपा ।।

 चतुर्वेद विद्या अध्येता संत हंस अवतंस प्रचेता ।। 

अजर अमर निर्वैर निकामा सहज स्वामि परिपूरन कामा।।

 जय जन-मानस मान्य अशेषा । करहु निरन्तर दूर कलेशा ।।

 लक्ष-अलक्ष अरूप सरूपा दुर्लभ-सुलभ योगिजन भूपा ।।

 द्विजकुल कमल मथुर मकरंदा विपुल विभवभूषित भवचन्दा ।।

 दुख-दारिद्रय अविद्या नाशक । ब्रह्म ज्ञान-विज्ञान प्रकाशक ।।

विचल अमल अलौकिक माया। ऋद्धि-सिद्धि सम्पत्तिनिकाया।। 

अशरण शरण भक्त-भय हारी। संतहृदय वन भूमि विहारी।।

 धर्म-अर्थ कामादि प्रदाता महिमामान लोक विख्याता ।। 

नाम-ग्राम धन-धाम विरागी परम तत्व चिन्तन अनुरागी।

 समदर्शी सुर विद्या-पोषी शक्ति-भक्ति भूषित संतोषी।। 

अमित तेज-बल-विद्याधाम व्यापक विश्वरूप अभिरामा।।

 जननी जनक बन्धु पुर तारक सत्य शिवोऽहं' मंत्र प्रचारक ।।

 सेये तीरथ संत मुनीशा बदरीवन केदार गिरीशा ।।

 (185) 223| परमहंस पश्विनी


चित्रकूट दंडक वन घूमे पंचवटी दर्शन करि झूमे।।

 सहे सतत शीतोष्ण तयारी कंदमूल फल फूल अहारो।। 

पंचानत पडऋतु व्रत धारी। पाप-ताप शोषक सुखकारी।।

 प्रणवमंत्रमय करुणा सागर । सुजन सैव्य त्रैलोकय उजागर ।।

 गंग यमुन- सरयू-जल धारा झरि-निर्झर यश कहँ अपारा।।

 वीतराग करुणेश अनादी ज्ञानगम्य परमारथवादी ।।

जप तप-संयम-नियम बखाना । किये विविध विधि यज्ञ विधाना।।

 रागद्वेष मद मोह निकंदन। परमहंस प्रभुवर जग वन्दन।।


समलंकृत शुभ टीकर ग्रामा वास किये जहं शोभाधामा।। 

वृन्द-वृन्द मिलि पुरजन आवहिं। करि दर्शन जीवनफल पावहिं।।

 बाढ़ी प्रीति-रीति अधिकाई। दिन दूना बन-भूमि सुहाई ॥ 

वही भक्तिगंगा की धारा । मज्जन करहिं गृहस्थ उदारा।।

 यद्यपि प्रभु एकान्त बिहारी। तदपि द्रवहिं निज-भक्त निहारी।।

 बरसे कृपा जबहिं प्रभु केरी मोहनिशा नशि जाय घनेरी ।।

 विपिन बीच प्रभु आश्रम सोहैं। शंख मृदंग भांझ मन मोहै।।

 पत्र-पुष्प नैवेध चढ़ावहिं। भक्त-वृन्द नित कीरति गावहिं।।

 विश्व-वन्द्य आनन्द अंबाधू वरनहि भूरि-भूरि गुण साधू ।।

 काम-क्रोध दावानल हारी। संत-हंस गण कहैं पुकारी।।

 अगम, अगोचर, विचरणशीला को कहि सकें अलोपी लीला।।

 विश्वनाथ वैकुण्ठ-निवासी। कीजे कृपा देव अविनाशी ।।

 जो यह पाठ करें मनलाई उर धरि, नेम-प्रेम अधिकाई।।

 ताके सब दुख दोष नशाही मिलें विजय मन-संशयमाही ।। 

#दोहा#

 जय जय दीन दयालु जय, परम हंस भगवान।

 देहु चरण सानिध्य मोहि, हरहु हृदय अज्ञान।।

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