नीति शतक श्लोक संख्या (२१-३०) हिन्दी अनुवाद सहित

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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नीति शतक श्लोक संख्या (२१-३०) हिन्दी अनुवाद सहित
नीति शतक श्लोक संख्या (२१-३०) हिन्दी अनुवाद सहित





क्षान्तिश्चेत्कवचेन  किं, किमिरिभिः क्रोधोऽस्ति चेद्देहिनां
                               ज्ञातिश्चेदनलेन   किं  यदि  सुहृद्दिव्यौषधिः किं फलम् ।
किं     सर्पैर्यदि     दुर्जनः, किमु    धनैर्वुद्यानवद्या     यदि
                                         व्रीडा चेत्किमु भूषणैः सुकविता यद्यस्ति राज्येन किम्।।२१।।

अर्थ:
यदि क्षमा है तो कवच की क्या आवश्यकता ? यदि क्रोध है तो शत्रुओं की क्या जरुरत है ? यदि स्वजातीय है तो अग्नि का क्या प्रयोजन ? यदि सुन्दर ह्रदय वाले मित्र हैं, तो आशुफलप्रद दिव्य औषधियों से क्या लाभ ? यदि दुर्जन है तो सर्पों से क्या ? यदि निर्दोष विद्या है तो धन से क्या प्रयोजन ? यदि लज्जा है तो जेवरों की क्या जरुरत ? यदि सुन्दर कविताशक्ति है तो राजवैभव का क्या प्रयोजन ?


दाक्षिण्यं    स्वजने, दया परजने, शाट्यं सदा दुर्जने
                        प्रीतिः साधुजने, नयो नृपजने, विद्वज्जनेऽप्यार्जवम् ।
शौर्यं    शत्रुजने,  क्षमा   गुरुजने, नारीजने   धूर्तता
                                    ये चैवं पुरुषाः कलासु कुशलास्तेष्वेव लोकस्थितिः ।। २२  ।।

अर्थ:

जो अपने रिश्तेदारों के प्रति उदारता, दूसरों पर दया, दुष्टों के साथ शठता, सज्जनों के साथ प्रीति, राज सभा में नीति, विद्वानों के आगे नम्रता, शत्रुओं के साथ क्रूरता, गुरुजनों के सामने सेहेनशीलता और स्त्रियों में धूर्तता या चतुरता का बर्ताव करते हैं - उन्ही कला कुशल नर पुंङ्गवो से लोक मर्यादा या लोक स्थिति है; अर्थात जगत उन्ही पर ठहरा हुआ है ।


जाड्यं धियो हरति सिंचति वाचि सत्यं 
                       मानोन्नतिं दिशति पापमपाकरोति । 
 चेतः    प्रसादयति  दिक्षु  तनोति कीर्तिं 
                                       सत्संगतिः कथय किं न करोति पुंसाम्।।२३ ।।

अर्थ:
सत्संगति, बुद्धि की जड़ता को हरती है, वाणी में सत्य सींचती है, सम्मान की वृद्धि करती है, पापों को दूर करती है, चित्त को प्रसन्न करती है और दशों दिशाओं में कीर्ति को फैलाती है । कहो, सत्संगति मनुष्य में क्या नहीं करती ?

कबीरदास:
एक घडी आधी घडी, आधी सों भी आध।
कबिरा सङ्गति साधु की, कटे कोटि अपराध।।
कबिरा सङ्गति साधु की, नित प्रति कीजै जाये।
दुर्मति दूर बहावसी, देसी सुमति बताय।।


जयन्ति  ते  सुकृतिनो रससिद्धाः कवीश्वराः ।
             नास्ति  येषां  यशः काये जरामरणजं भयम् ।। २४ ।।

अर्थ:
जो पुण्यात्मा कवि श्रेष्ठ श्रृंगार आदि नव रसों में सिद्ध हस्त हैं, वे धन्य हैं । उनकी जय हो ! उनकी कीर्ति रूप देह को बुढ़ापे और मृत्यु का भय नहीं ।

जौक:
रहता है सखुन से नाम, क़यामत तलक है जौक।
औलाद से तो है, यही दो पुश्त चार पुश्त ।।



सूनुः सच्चरितः सती प्रियतमा स्वामी प्रसादोन्मुखः
स्निग्धं मित्रमवञ्चकः परिजनो निःक्लेशलेशं मनः ।
आकारो रुचिरः स्थिरश्च विभवो विद्यावदातं मुखं
तुष्टे विष्टपकष्टहारिणि हरौ सम्प्राप्यते देहिना ॥ २५॥

अर्थ:
सदा चरणपरायण पुत्र, पतिव्रता सती स्त्री, प्रसन्नमुख स्वामी, स्नेही मित्र, निष्कपट नातेदार, केशरहित मन, सुन्दर आकृति, स्थिर संपत्ति और विद्या से शोभायमान मुख, ये सब उसे मिलते हैं जिस पर सर्व मनोरथों के पूर्ण करनेवाले स्वर्गपति कृष्ण भगवान् प्रसन्न होते हैं अर्थात विश्वेश लक्ष्मीपति नारायण की कृपा बिना उत्तमोत्तम पदार्थ नहीं मिलते ।

वृन्द कवी:
जैसो गन दिनों दई, तैसो रूप निबन्ध।
ये दोनों कहाँ पाइये, सोनो और सुगन्ध।।


प्राणाघातान्निवृत्तिः परधनहरणे संयमः सत्यवाक्यं
                          काले शक्त्या प्रदानं युवतिजनकथामूकभावः परेषाम् ।
तृष्णास्रोतोविभङ्गो गुरुषु च विनयः सर्वभूतानुकम्पा
                                  सामान्यः सर्वशास्त्रेष्वनुपहतविधिः श्रेयसामेष पन्थाः ॥ २६॥

अर्थ:

जीव हिंसा न करना, पराया धन हरण करने से मन को रोकना, सत्य बोलना, समय पर सामर्थ्यनुसार दान करना, पर-स्त्रियों की चर्चा न करना और न सुन्ना, तृष्णा के प्रवाह को तोडना, गुरुजनो के आगे नम्र रहना और सब प्राणियों पर दया करना - सामान्यतया, सब शास्त्रों के मत से ये सब मनुष्य के कल्याण के मार्ग हैं । 

शेख सादी:
ज़ेरे पायत गरिबदानी हाले मोर। 
हम चोहाले तस्त जेरे पाये पील।। 

तुम्हारे पाँव के नीचे दबी चींटी का वही हाल होता है, जो यदि तुम हाथी के पाँव के नीचे दब जाओ तो तुम्हारा हो ।

कबीरदास:
बकरी पाती खात है, ताकी काढ़ि खाल।
जो बकरी को खात है, तिनको कौन हवाल?
मुर्गी मुल्ला सों कहै, ज़िबह करत है मोहि।
साहब लेखा माँगसी, संकट परि है तोहि ।।
गाला काटि कलमा भरे, किया कहै हलाल।
साहब लेखा माँगसी, तब होसी कौन हवाल?


प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः
                     प्रारभ्य विघ्नविहता विरमन्ति मध्याः ।
विघ्नैः पुनः पुनरपि प्रतिहन्यमानाः
                          प्रारब्धमुत्तमजना न परित्यजन्ति ॥२७॥

अर्थ:


संसार में तीन तरह के मनुष्य होते हैं:-१. नीच, २. मध्यम और ३. उत्तम । नीच मनुष्य, विघ्न होने के भय से काम को आरम्भ ही नहीं करते । मध्यम मनुष्य कार्य को आरम्भ तो कर देते हैं, किन्तु विघ्न होते ही उसे बीच में ही छोड़ देते हैं, परन्तु उत्तम मनुष्य जिस काम को आरम्भ कर देते हैं, उसे विघ्न पर विघ्न होने पर भी, पूरा करके ही छोड़ते हैं ।

शेख सादी :
मुश्किले नेस्त कि आसां न शवद ।
मर्द बायद कि, परेशां न शवद ।।

ऐसी कोई मुश्किन नहीं, जो आसान न हो जाय; पर यह जरूरी है कि मर्द घबराये नहीं ।


असन्तो नाभ्यर्थाः सुहृदपि न याच्यः कृशधनः ।
              प्रिया न्यायया वृत्ति र्मलिनमसभंगेऽप्यसुकरम्।।
 विपद्युच्चैः    स्थेयं   पदमनुविधेयं  च  महताम्।
               सतां केनोद्रिष्टं विषमसिधाराव्रत मिदम् ॥ २८ ॥

अर्थ:
सत्पुरुष दुष्टों से याचना नहीं करते, थोड़े धन वाले मित्रों से भी कुछ नहीं मांगते, न्याय की जीविका से संतुष्ट रहते हैं, प्राणों पर बन आने पर भी पाप कर्म नहीं करते, विषाद काल में वे ऊँचे बने रहते हैं यानी घबराते नहीं और महत पुरुषों के पदचिन्हों का अनुसरण करते हैं । इस तलवार की धार के सामान कठिन व्रत का उपदेश उन्हें किसने दिया ? किसी ने नहीं, वे स्वभाव से ही ऐसे होते हैं । मतलब ये है कि सत्पुरुषों में उपरोक्त गुण किसी के सिखाने से नहीं आते, उनमें ये सब गुण स्वभाव से या पैदाइशी होते हैं ।

वृन्द कवी:
मानधनी नर नीच पै, जाचे नाहिं जाय।
कबहुँ न मांगे स्यार पै, मरु भूखो मृगराज।।

तुलसीदास:
तुलसी कर पर कर करो, कर तर कर न करो।
जा दिन कर तर कर करो, ता दिन मरण करो।।
घर से भूख पड़ रहे, दस फांके हो जाय।
तुलसी भैया बंधू के, कबहुँ न मांगें जाय।।

शेखसादी:
अगर हिनज़ल खुरी अज़ दस्त खुशरुए।
वह अज़ शीरीनी दस्ते तुर्शरुए।।

दुष्ट के हाथ से मिठाई खाने की अपेक्षा सज्जन के हाथ से इन्द्रायण का कड़वा फल खाना अच्छा ।


मानशौर्य प्रशंसा

क्षुत्क्षामोऽपि जराकृशोऽपि शिथिलप्राणोऽपि कष्टां दशाम्
आपन्नोऽपि विपन्नदीधितिरिति प्राणेषु नश्यत्स्वपि ।
मत्तेभेन्द्रविभिन्नकुम्भपिशितग्रासैकबद्धस्पृहः
किं जीर्णं तृणमत्ति मानमहतामग्रेसरः केसरी  ॥ २९ ॥

अर्थ:
जो सिंह माननीयों में अगुआ है और जो सदा मतवाले हाथियों के विदारे हुए मस्तक के ग्रास का चाहनेवाला है, वह चाहे कितना ही भूख, बुढ़ापे के मारे शिथिल, शक्तिहीन अत्यंत दुःखी और तेजहीन क्यों न हो जाय - पर वह प्राणनाश का समय आने पर भी, सूखी हुई, सड़ी घास खाने को हरगिज़ तैयार न होगा ।

गिरधर कविराज:
पीवे नीर न सरवरो, बूँद स्वाति की आश।
केहरि तरुण नहिं चर सके जो व्रत करे पचाश।।
जो व्रत करे पचाश, विपुल गज-युत्थ विदारे।
सत्पुरुष तजै न धीर, जीव अरु कोई मारे।।
कह गिरिधर कविराज जीव जोधक मरि जीवै।
चातक अरु मर जाय, नीर सरवर नहिं पीवै।।


स्वल्पं  स्नायुवसावशेषमलिनं निर्मांसमप्यस्थि गोः
श्वा लब्ध्वा परितोषमेति न तु तत्तस्य क्षुधाशान्तये ।
सिंहो जम्बुकमङ्कमागतमपि त्यक्त्वा निहन्ति द्विपं 
                 सर्वः कृच्छगतोपि वाञ्छति जनः सत्त्वानुरूपं फलम् ।।३०।।

अर्थ:
कुत्ता, गाय प्रभृत्ति पशु का जरा सा पित्त और चर्बी लगा हुआ मलिन और मांसहीन छोटा सा हाड का टुकड़ा पाकर - जिससे उसकी क्षुधा शांत नहीं हो सकती - अत्यन्त प्रसन्न होता है, लेकिन सिंह गोद में आये हुए सियार को भी त्याग कर हाथी के मरने को दौड़ता है ।

वृन्द कवि:
बड़े कष्ट हू जे बड़े, करें उचित ही काज।
स्यार निकट तजि खोज के, सिंह हने गजराज।।

कुण्डलिया:
कूकर सूखे हाड सों, मानत है मन मोद।
सिंह चलावत हाथ नहिं, गीदड़ आये गोद।।
गीदड़ आये गोद, आँखहू नाहिं उधारे।
महामत्त गज देख, दौर के कुम्भ विदारे।।
ऐसे ही न खरे, बढ़ी कृत करत दुहूँकर।
करैं नीचता नीच, क्रूर कुत्सित ज्यों कूकर।।

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