नीतिशतक श्लोक संख्या १-१० संस्कृत पाठ हिन्दी अनुवाद सहित

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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नीति-शतक उपदेश
नीति-शतक उपदेश

दिक्कालाद्यनवच्छिन्नानन्तचिन्मात्रमूर्तये ।
         स्वानुभूत्येकमानाय नमः शान्ताय तेजसे ॥१॥ 
       
      जो दिशा, काल, आकाश आदि से आवृत न किया जा सकने वाला है, जिसका कोई अन्त नहीं है, अर्थात् जो असीमित है, अविनाशी है, जो मात्र ज्ञान स्वरूप है, आत्मानुभव रूप एकमात्र प्रमाण वाला है अर्थात् जिसे केवल अनुभव के द्वारा ही जाना जा सकता है, जो निर्विकार है, ऐसे तेजोमय परब्रह्म को नमस्कार है ।
 (My salutation to the peaceful light, whose form is only pure intelligence unlimited and unconditioned by space, time, and the principal means of knowing which is self-perception.)


यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता,
साप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः । 
अस्मत्कृते च परिशुष्यति काचिदन्या,
  धिक्तां च तं च मदनं च इमां च मां च ॥२॥ 


      जिस स्त्री से मैं प्रेम करता हूँ उसके ह्रदय में मेरे लिए कोई प्रेम नहीं है,बल्कि वह किसी और से प्रेम करती है,जो किसी और से प्रेम करता है, और जो स्त्री मुझसे प्रेम करती है उसके लिए मेरे ह्रदय में कोई स्नेह नहीं हैमुझे इन सभी से और खुद से घृणा है। (The woman whom I adore has no affection for me; she, however, adores another who is attached to some one else; while a certain woman is in love with me even when I do not reciprocate the feelings. Fie on her, on him, on the God of Love, on that woman, and on myself.)


मूर्खपद्धतिः

   अज्ञः सुखमाराध्यः सुखतरमाराध्यते विशेषज्ञः ।
         ज्ञानलवदुर्विदग्धं  ब्रह्मापि च तं नरं न रञ्जयति ॥3॥

          एक मुर्ख व्यक्ति को समझाना आसान है, एक बुद्धिमान व्यक्ति को समझाना उससे भी आसान है, लेकिन एक अधूरे ज्ञान से भरे व्यक्ति को भगवान ब्रम्हा भी नहीं समझा सकते, क्यूंकि अधूरा ज्ञान मनुष्य को घमंडी और तर्क के प्रति अँधा बना देता है। (An ignorant man can be easily convinced, a wise man can still more easily be convinced: but even Lord Brahma cannot please him who is puffed up with a little knowledge because half knowledge makes a man very proud and blind to logic.)

प्रसह्य मणिमुद्धरेन्मकरवक्रदंष्ट्रान्तरात्
   समुद्रमपि सन्तरेत्प्रचलदूर्मिमालाकुलम् ।
 भुजङ्गमपि कोपितं शिरसि पुष्पवद्धारये
          न्न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥४॥

  अगर हम चाहें तो मगरमच्छ के दांतों में फसे मोती को भी निकाल सकते हैं, साहस के बल पर हम बड़ी-बड़ी लहरों वाले समुद्र को भी पार कर सकते हैं, यहाँ तक कि हम  गुस्सैल सर्प को भी फूलों की माला तरह अपने गले में पहन सकते हैं; लेकिन एक मुर्ख को सही बात समझाना असम्भव है। (With courage, we could extract the pearl stuck in between crooked teeth of a crocodile. We could sail across an ocean that is tormented by huge waves. We may even be able to wear an angry snake on our head as if it were a flower. However it is impossible to satisfy an obstinate fool.)

लभेत सिकतासु तैलमपि यत्नतः पीडयत्
    पिबेच्च मृगतृष्णिकासु सलिलं पिपासार्दितः ।
कदाचिदपि पर्यटञ्छशविषाणमासादयेत्
    न तु प्रतिनिविष्टमूर्खजनचित्तमाराधयेत् ॥५॥

       अथक प्रयास करने पर रेत से भी तेल निकला जा सकता है तथा मृग मरीचिका से भी जल ग्रहण किया जा सकता हैं। यहाँ तक की हम सींघ वाले खरगोशों को भी दुनिया में विचरण करते देख सकते है; लेकिन एक पूर्वाग्रही मुर्ख को सही बात का बोध कराना असंभव है। (If enough effort is put in, we can extract oil by squeezing sand. You may be able to drink water at a mirage. It is also possible to even spot a rabbit with horns while roaming around the world. However it is impossible to get a prejudiced fool to see logic.)

व्यालं          बाल-मृणाल-तन्तुभिरसौरोद्धं समुज्जृम्भते, 
                        छेत्तुं        वज्रमणिंशिरीषकुसुम-प्रान्तेन          सन्नह्यते । 
माधुर्यं       मधुबिन्दुना         रचयितुं    क्षाराम्बुधेरीहते, 
                                 नेतुं वांछति यः खलान्पथि सतां सूक्तैः सुधास्यन्दिभिः ।। ६ ।।
अर्थ -
    जो मनुष्य अपने अमृतमय उपदेशों से दुष्ट को सुराह पर लाने की इच्छा करता है, वह उसके सामान अनुचित काम करता है, जो कोमल कमल की डण्डी के सूत से ही मतवाले हाथी को बांधना चाहता है, सिरस के नाजुक फूल की पंखुड़ी से हीरे को छेदना चाहता है अथवा एक बूँद मधु से खारे महासागर को मीठा करना चाहता है ।

   फूले फलै न बेत,   यद्यपि सुधा बरपहिं जल्द ।
                  मूरख-ह्रदय न चेत, जो गुरु मिले विरंचि-सम ।। - तुलसी 


स्वायत्तमेकान्तगुणं विधात्रा
विनिर्मितं छादनमज्ञतायाः ।
 विशेषतः सर्वविदां समाजे
          विभूषणं मौनमपण्डितानाम् ॥७॥
अर्थ:
       मूर्खों को अपनी मूर्खता छिपाने के लिए ब्रह्मा ने "मौन धारण करना" अच्छा उपाय बता दिया है और वह उनके अधीन भी कर दिया है । मौन मूर्खता का ढक्कन है । इतना ही नहीं वह विद्वानों की मण्डली में उनका आभूषण भी है ।



यदा किञ्चिज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवं
 तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिप्तं मम मनः ।
   यदा किञ्चित् किञ्चित् बुधजनसकाशादवगतं
          तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः॥८॥
अर्थ:-
    जब मैं कुछ थोड़ा सा जानता था, तब मदोन्मत्त हाथी की तरह घमण्ड से अन्धा होकर, अपने को ही सर्वज्ञ समझता था । लेकिन ज्योंही मैंने विद्वानों की सङ्गति से कुछ जाना और सीखा, त्योंही मालूम हो गया की मैं तो निरा मूर्ख हूँ । उस समय मेरा मद ज्वर की तरह उतर गया ।
जौक:
हम जानते थे, इल्म से कुछ जानेंगे ।
जाना तो यह जाना, कि न जाना कुछ भी ।।

कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धि जुगुप्सितं
निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषम् ।
सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्थं विलोक्य न शङ्कते
          न हि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुताम् ।। ९ ।।
अर्थ:-
    जिस तरह कीड़ो से भरे हुए, लार-युक्त, दुर्गन्धित, रस-मास हीन मनुष्य के घ्रणित हाड को आनंद से खाता हुआ कुत्ता, पास खड़े इन्द्र की भी शंका नहीं करता, उसी तरह क्षुद्र जीव, जिसका ग्रहण कर लेता है, उसकी तुच्छता पर ध्यान नहीं देता ।
कुण्डलिया: 
कूकर शिर कारा परै, गिरै बदन ते लार। 
बुरौ बास बिकराल तन, बुरौ हाल बीमार।।
बुरौ हाल बीमार, हाड सूखे को चाबत।
लखि इंद्रहु को निकट, कछु उर शंक न लावत।।
निठुर महा मनमांहि, देख घुर्रावत हूकर।
तैसे ही नर नीच, निलज डोलै ज्यों कूकर।।


            शिरः शार्वं स्वर्गात् पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरम्
                          महीध्रादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम्।
अधोऽधो गङ्गेयं पदमुपगता स्तोकमथवा
                                       विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः ।। १० ।। 

अर्थ:
    गङ्गा पहले स्वर्ग से शिव के मस्तक पर गिरी, उनके मस्तक से हिमालय पर्वत पर गिरी, वहां से पृथ्वी पर गिरी और पृथ्वी से बहती बहती समुद्र में जा गिरी । इस तरह ऊपर से नीचे गिरना आरम्भ होने पर, गङ्गा नीचे ही नीचे गिरी और स्वल्प हो गयी । गङ्गा की सी ही दशा उन लोगों की होती है, जो विवेक-भ्रष्ट हो जाते हैं, उनका भी अधःपतन गङ्गा की ही तरह सौ-सौ तरह होता है ।

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