साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः ।
तृणं न खादन्नपि जीवमान-
स्तद्भागधेयं परमं पशूनाम्॥१२॥
हिन्दी अनुवाद-
साहित्य संगीत और कला से रहित मनुष्य पूंछ और सींग से रहित साक्षात् पशु ही है जो कि वह तिनके, घास आदि को ना खाता हुआ भी जीवित रहता है, यह पशुओं का परम सौभाग्य है ।
कवि के कथन का अभिप्राय है कि, मनुष्य तथा पशु में बुद्धि वैभव का ही अंतर है । इसीलिए मानव साहित्य संगीत कला आदि विभिन्न विषयों का ज्ञाता होता है और पशुओं में ज्ञान शून्यता रहती है । दोनों में भेद तत्व यह साहित्य आदि विषय ज्ञान ही है । परंतु जो मानव योनि पाकर भी इस प्रकार का ज्ञान प्राप्त नहीं करता, उससे दूर रहता है वह तो साक्षात पशु ही है । मनुष्य के सींग और पूंछ नहीं होते, चार पैर नहीं होते, और वह घास भी नहीं खाता है, यदि यह गुण भी उसमें हो जाए तो पशु बेचारे भूखों मर जाएंगे ।
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