बाणभट्ट विरचित कादंबरी के श्लोकों का वाचन एवं हिन्दी व्याख्या

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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रजोजुषे जन्मनि सत्ववृत्तये 

स्थितौ प्रजानां प्रलये तमःस्पृशे।

अजाय सर्गस्थितिनाशहेतवे 

त्रयीमयाय त्रिगुणात्मने नमः।।१।।

हिन्दी-अनुवाद- (जो) प्राणियों के प्रादुर्भाव काल में रजोगुण युक्त (अर्थात् ब्रह्मा के रूप में), स्थिति-काल में सात्त्विक वृत्ति वाला (अर्थात् सत्त्वगुणयुक्त विष्णु के रूप में) तथा प्रलयकाल में तमोगुण स्पर्शी (अर्थात् तमोगुण युक्त प्रलयङ्कर शिव के रूप में) होता है। (संसार की) सृष्टि, स्थिति एवं प्रलय (विनाश) के कारण बनने वाले, वेदत्रयी में व्याप्त, त्रिगुणस्वरूप एवं अजन्मा (उस) परब्रह्म को नमस्कार है।।१।।

जयन्ति बाणासुरमौलिलालिता 

दशास्यचूडामणिचक्रचुम्बिनः।

सुरासुराधीशशिखान्तशायिनो 

भवच्छिदस्त्र्यम्बकपादपांसवः।।२।।

हिन्दी-अनुवाद- असुरराज बाण द्वारा (आदरपूर्वक) सिर-माथे लगाई गई, लंकापति रावण के शिरोमणि-समूह को चूमने वाली देवताओं तथा राक्षसों के अधिपतियों के शिखाग्रभाग पर शयन करने वाली, भवबंधन काटने वाली , त्रिनेत्रधारी भगवान शिव की चरणधूलि विजयिनी बनें।।२।।

जयत्युपेन्द्रः स चकार दूरतो 

बिभित्सया यः क्षणलब्धलक्ष्यया। 

दृशैव कोपारुणया रिपोरुरः 

स्वयं भयाद्धिन्नमिवास्त्रपाटलम्।।३।।

हिन्दी-अनुवाद- (नृसिंह रूपधारी, देवराज इन्द्र के अनुजकल्प) ठन उपेन्द्र की जय हो जिन्होंने विदीर्ण कर देने की इच्छा से दूर से (ही) क्षणमात्र में लक्ष्य को प्राप्त कर लेने वाली (अतएव) क्रोध के कारण रक्तवर्णा दृष्टि से ही शत्रुकल्प हिरण्यकशिपु के वक्ष:स्थल को इस प्रकार अस्पताल अर्थात् रुधिर की भाँति श्वेत रक्त बना दिया था, मानो विदारणाय से वह अपने आप फट गया हो।।३।।

नमामि भोश्चरणाम्बुजद्वयं 

सशेखरैः मौखरिभिः कृतार्चनम्। 

समस्तसामन्तकिरीटवेदिका

विटङ्कपीठोल्लुठितारुणाङ्गुलि।।४।।

हिन्दी-अनुवाद- मुकुट धारण करने वाले मौखरि क्षत्रियों द्वारा समर्पित तथा समस्त सामन्तों (अधीनस्थ प्रदेशाधिपतियों) की किरीटरूपी वेदिकाओं की मध्यवर्तिनी विटङ्कभूमि (अर्थात् उन्नत प्रदेश) पर रगड़ जाने के कारण लाल हो जाने वाली (गुरुदेव) भारवि (भत्सु) के चरणकमलयुगल की मैं (बाणभट्ट) वन्दना करता हूँ।।४।।

अकारणाविष्कृतवैरदारुणा-

दसज्जनात्कस्य भयं न जायते।

विषं महादेव यस्य दुर्वचः 

सुदुःसहं सन्निहितं सदा मुखे।।५।।

हिन्दी-अनुवाद-बिना किसी कारण के ही वैरभाव प्रकट करने वाले अतएव क्रूर दुष्टपुरुष से किसे भय नहीं उत्पन्न होता, जिसके मुख में अत्यन्त दुस्सह दुर्वचन उसी प्रकार सदैव भरा रहता है जैसे महासर्प के मुख में अत्यन्त असह्य विष सदैव भरा रहता है।।५।।

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