नीति शतक श्लोक वाचन ११-२० हिन्दी अनुवाद सहित

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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शक्यो वारयितुं जलेन हुतभुक् छत्रेण सूर्यातपो
नागेन्द्रोनिशितांकुशेन समदो दण्डेन गौर्गर्दभः ।
व्याधिर्भेषजसंग्रहैश्च विविधैः मन्त्रप्रयोगैर्विषं
सर्वस्यौषधमस्ति शास्त्रविहितं मूर्खस्य नास्त्यौषधम् ।। ११ ।।

अर्थ:
अग्नि को पानी से शांत किया जा सकता है, छाते से सूर्य की धूप को, तीक्ष्ण अङ्कुश से हाथी को, लकडी से मदोन्मत्त भैंसे या घोड़े को काबू में किया जा सकता है; अलग अलग दवाईयों से रोग, और विविध मन्त्रों से विष दूर हो सकता है; सभी चीज़ के लिए शास्त्रों में औषध है, लेकिन मूर्ख के लिए कोई औषध नहीं है ।

साक्षात्पशुः पुच्छविषाणहीनः । 
तृणं न खादन्नपि जीवमानः 
तद्भागधेयं परमं पशूनाम् ।। १२ ।।

अर्थ:
जो मनुष्य साहित्य और संगीत कला से विहीन है, यानि जो साहित्य और संगीत शास्त्र का जरा भी ज्ञान नहीं रखता या इनमें अनुराग नहीं रखता, वह बिना पूँछ और सींग का पशु है । यह घास नहीं खाता और जीता है, यह इतर पशुओं का परम सौभाग्य है ।

ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः। 
ते मर्त्यलोके भुविभारभूता 
मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति ।। १३ ।।

अर्थ:
जिन्होंने न विद्या पढ़ी है, न तप किया है, न दान ही दिया है, न ज्ञान का ही उपार्जन किया है, न सच्चरित्रों का सा आचरण ही किया है, न गुण ही सीखा है, न धर्म का अनुष्ठान ही किया है - वे इस लोक में वृथा पृथ्वी का बोझ बढ़ाने वाले हैं, मनुष्य की सूरत-शकल में, चरते हुए पशु हैं ।


न मूर्खजनसम्पर्कः सुरेन्द्रभवनेष्वप ।। १४ ।।

अर्थ:
बियावान जंगल और पर्वतों के बीच खूंखार जानवरों के साथ रहना अच्छा है किंतु अगर मूर्ख के साथ इंद्र की सभा में भी बैठने का अवसर मिले तो भी उसे स्वीकार नहीं करना चाहिए।

इल्म चंदा कि बेशतर रव्वानी।
चूं अमल दर तो नेस्त नादानी।।
न मुहक्किक बुवद न दानिशमन्द।
चारपाये वरो किताबे चन्द।।

किसी गधे पर यदि कुछ ग्रन्थ लाद दिए जाएं तो क्या वह उनसे विद्वान या बुद्धिमान बन सकता है?
चन्दन का भार उठाने वाला गधा केवल भार की बात को जानता है; वह चन्दन और उसके गुणों को नहीं जानता । इसी तरह जो अनेक शास्त्रो को पढ़ तो लेते हैं पर शास्त्रों के उपदेशानुसार नहीं चलते वे मूर्ख गधे ही हैं । ऐसो को खाली अहङ्कार ही होता है । इससे उनकी मूर्खता और भी भयंकर हो जाती है । अंग्रेजी में एक कहावत है "विद्या से मनुष्य बुद्धिमान हो जाता है, किन्तु मूर्ख उससे और भी मूर्ख हो जाता है ।

दोहा:
कुटिल क्रूर लोभी जो नर, करै न संगति ताहि।
ऋषि वशिष्ठ धेनु हरि, विश्वामित्र जु चाहि।।


विख्याताः कवयो वसंति विषये यस्य प्रभोर्निर्धनाः|
तज्जाड्यं वसुधाधिपस्य सुधियस्त्वर्थं विनापीश्वराः
कुत्स्याःस्युः कुपरीक्षैर्न मणयो यैरर्घतः पातिताः।। १५ ।।

अर्थ:
जिन कवियों की वाणी शास्त्राध्ययन की वजह से शुद्ध और सुन्दर है, जिनमें शिष्यों को पढ़ाने की योग्यता है, जो अपनी योग्यता के लिए सुप्रसिद्ध हैं - ऐसे विद्वान् जिस राजा के राज्य में निर्धन रहते हैं वह राजा निस्संदेह मूर्ख है । कविजन तो बिना धन के भी श्रेष्ठ ही होते हैं । रत्नपारखी अगर रत्न का मोल घटा दे तो रत्न का मूल्य काम न हो जायेगा, रत्न का मूल्य तो जितना है उतना ही बना रहेगा, मूल्य घटने वाला अनाड़ी समझ जायेगा ।


ह्यार्थिभ्यः प्रतिपाद्यमानमनिशं प्राप्नोति वृद्धिं पराम् ||
कल्पान्तेष्वपि न प्रयाति निधनं विद्याख्यमन्तर्धनं
येषां तान्प्रति मानमुज्झत नृपाः कस्तैः सह स्पर्धते ।। १६ ।।


अर्थ:
विद्या एक ऐसा धन है जो एक चोर को भी नहीं दिखाई देता
है पर फिर भी जिस के पास भी यह धन होता है वह सदैव सुखी रहता है |
निश्चय ही विद्या प्राप्त करने के इच्छुक व्यक्तियों को दान देने से यह
दान दाता के सम्मान में तथा स्वयं भी निरन्तर वृद्धि प्राप्त करता है और
कल्पान्त तक (लाखों वर्षों तक ) इसका नाश नहीं हो सकता है | इसी
लिये विद्या को लोग एक गुप्त धन कहते हैं .और इसी लिये महान राजा
भी ऐसे विद्या धन से संपन्न व्यक्ति के प्रति अपने गर्व को त्याग कर
उसका सम्मान करते हैं | भला ऐसे व्यक्ति से कौन स्पर्धा कर सकता है ?


स्तृणमिव लघुलक्ष्मीर्नैव तान्संरुणद्धि ।
अभिनवमदलेखाश्यामगण्डस्थलानां
न भवति बिसतन्तुवरिणं वारणानाम् ।। १७ ।।

अर्थ:
हे राजाओं ! जिन्हें परमार्थ साधन की कुञ्जी मिल गयी है, उन्हें आत्मज्ञान हो गया है, उनका आपलोग अपमान न कीजिये क्योंकि उनको तुम्हारी तिनके जैसे तुच्छ लक्ष्मी उसी तरह नहीं रोक सकती जिस तरह नवीन मद की धरा से सुशोभित श्याम मस्तक वाले मदोन्मत्त गजेंद्र को कमाल की डण्डी का सूत नहीं रोक सकता ।

महाकवि दाग:
तेरी बन्दा-नवाजी, हफ्त किश्वर वख्फा देती है।
जो तू मेरा, जहाँ मेरा, अरब मेरा, अजम मेरा ।।

तेरी सेवा करने से सातो विलायतों का राज्य मिल जाता है । जब तू अपना हो जाता है, तो सारे जहाँ के अपना होने में क्या संदेह है ।

कुण्डलिया:
पण्डित परमार्थीन को, नहिं करिये अपमान ।
तरुण-सम संपत को गिनै, बस नहिं होत सुजान ।।
बस नहिं होत सुजान, पटा झरमद है जैसे ।
कमलनाल के तन्तु बंधे, रुक रहीहै कैसे? ।।
तैसे इनको जान, सबहिं सुख शोभा मण्डित ।
आदरसो बस होत, मस्त हाथी ज्यों पण्डित ।।



हंसस्य हन्ति नितरां कुपितो विधाता ।
न त्वस्य दुग्धजलभेदविधौ प्रसिद्धां,
वैदग्ध्यकीर्तिमपहर्तुमसौ समर्थः ।। १८ ।।

अर्थ:
अगर विधाता हंस से नितान्त ही कुपित हो जाय, तो उसका कमलवन का निवास और विलास नष्ट कर सकता है, किन्तु उसकी दूब और पानी को अलग अलग कर देने की प्रसिद्ध चतुराई की कीर्ति को स्वयं विधाता भी नष्ट नहीं कर सकता ।



दोहा:
कोपित यदि विधि हंस को, हरत निवास विलास।
पय पानी को पृथक गुण, तासु सकै नहि नाश।।


न स्नानं न विलेपनं न कुसुमं नालङ्कृता मूर्धजाः ।
वाण्येका समलंकरोति पुरुषं या संस्कृता धार्यते
क्षीयते खलु भूषणानि सततं वाग्भूषणं भूषणम् ।। १९  ।।

अर्थ:
बाजूबन्द, चन्द्रमा के समान मोतियों के हार, स्नान, चन्दनादि के लेपन, फूलों के श्रृंगार और सँवारे हुए, बालों से पुरुष की शोभा नहीं होती; पुरुष की शोभा केवल संस्कार की हुई वाणी से है; क्योंकि और सब भूषण निश्चय ही नष्ट हो जाते है, किन्तु वाणी-रुपी भूषण सदा वर्तमान रहता है ।

विद्या नाम नरस्य रूपमधिकं प्रच्छन्नगुप्तं धनं
विद्या भोगकारी यशःसुखकारी विद्या गुरूणां गुरुः ।
विद्या बन्धुजनो विदेशगमने विद्या परा देवता
विद्या राजसु पूजिता न तु धनं विद्याविहीनः पशुः ।।२० ।।

अर्थ:
विद्या मनुष्य का सच्चा रूप और छिपा हुआ धन है; विद्या मनुष्य को भोग, सुख और सुयश देने वाली है; विद्या गुरुओं की भी गुरु है, परदेश में विद्या ही बन्धु का काम करती है, विद्या ही परम देवता है, राजाओं में विद्या का ही मान है, धन का नहीं। जिसमें विद्या नहीं, वह पशु के समान है ।

गोस्वामी तुलसीदास:
तुलसी साथी विपत्ति के, विद्या विनय विवेक ।
साहस सुकृत सत्यव्रत, राम भरोसो एक ।।


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