bhartrihari |
भर्तृहरि के जीवन परिचय के विषय में जनश्रुतियां ही आधार हैं । इसके आधार पर यह स्वीकार किया जाता है कि महाराजा भर्तृहरि "गंधर्वसेन" राजा के पुत्र थे । विक्रम इनके सौतेले भाई थे । ज्येष्ठ भ्राता होने के कारण भर्तृहरि राजा थे और विक्रम प्रधानमंत्री के रूप में राज्य कार्य संचालन करते थे । दोनों भाइयों में गहरा प्रेम था । राजा अपने छोटे भाई विक्रम का बड़ा विश्वास करते थे । परिणामस्वरूप वह उन्हीं पर राज्य संचालन का भार छोड़ कर अपना जीवन आमोद-प्रमोद में बिताया करते थे । विक्रम यद्यपि राज्य कार्य सुचारू रूप से चला रहे थे, फिर भी उनको अपने भाई की यह स्रैण्य प्रवृत्ति अच्छी नहीं लगती थी । उन्होंने महाराज को सचेत करने का भी प्रयास किया परन्तु उन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा । निराश होकर विक्रम ही राज्य करते रहे और महाराज भर्तृहरि अपनी पिंगला नाम की रानी पर मुक्त होकर उसी के वश में होकर के आनंद से जीवन बिताते रहे ।
एक जनश्रुति के आधार पर एक ब्राह्मण ने तप के फलस्वरूप एक अमरफल प्राप्त किया और उसने यह समझ कर कि अमर फल खाने से अमर होकर अनंत काल तक जीवन बिताना पड़ेगा अतः यह फल राजा को दे दिया । राजा(भर्तृहरि) अपनी रानी पिंगला से अत्यधिक प्रेम करते थे, अतः उसने यह फल स्वयं न खा करके अपनी प्राण प्रिया रानी(पिंगला) को दे दिया जिससे कि वह चिरकाल तक अनंत यौवना बनी रहे । रानी अपने राज्य के एक वरिष्ठ कर्मचारी से गुप्त प्रेम करती थी पर राजा को इसके गुप्त प्रेम का पता ना था । उनके अनुज विक्रमादित्य को गुप्तचरों द्वारा जब यह पता लगा तब उन्होंने राजा से सब वृतांत कहा पर राजा तो रानी पर अटूट विश्वास करता था अतः उसे विक्रम की बात पर विश्वास ना हुआ अपितु वह उस पर अत्यधिक क्रोधित हुआ और उसे राज्य से बाहर निकाल दिया । इस प्रकार विक्रम के राज्य छोड़कर चले जाने पर भी रानी और उच्च अधिकारी में गुप्त प्रेम चलता रहा । अमरफल मिलने पर प्रेम बस रानी ने उस फल को उसी अधिकारी को दे दिया वह अधिकारी भी रानी से सच्चा प्रेम नगर के उसी नगर एक वेश्या से प्रेम करता था । उसने वह अमरफल वेश्या को दे दिया । अमरफल को प्राप्त कर वेश्या ने सोचा कि, यदि इस फल को खाकर में अमर हो जाऊंगी तो न जाने कब तक मुझे इसी प्रकार के कुकर्म में जीवन बिताना पड़ेगा, अतः उसने उस फल को महाराज भर्तृहरि को दे दिया जिससे वे जीवित रहकर प्रजा का चिरकाल तक पालन कर सकें । फल को वेश्या के हाथ से प्राप्त कर राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ पता लगाने पर उन्हें सब रहस्य स्पष्ट हो गया । उन्हें अपनी मूर्खता पर बड़ा दुख हुआ । उन्होंने निश्चय किया कि यह स्त्री प्रेम सर्वथा निस्सार एवं हेय है । जिस संसार में ऐसी स्त्रियां रहती हों वह संसार भी तुच्छ है । उन्होंने संसार को छोड़ देने का निश्चय कर मंत्रियों से कहा कि तुम विक्रम(विक्रमादित्य) का पता लगाओ । जब उनका पता लग जाए तो उन्हें यह राज्य दे देना । इस बीच तुम इस राज्य की रक्षा करो मैं इस संसार से विरक्त होकर जा रहा हूं । मंत्रियों ने राजा को विदा किया और विक्रम को खोज कर उसे राज सिंहासन पर बैठाया । जिस समय महाराज भर्तृहरि राज्य छोड़कर जा रहे थे उस समय उन्होंने एक श्लोक कहा था जो कि नीतिशतक के कुछ संस्करणों में उपलब्ध होता है -
यां चिन्तयामि सततं मयि सा विरक्ता
साऽप्यन्यमिच्छति जनं स जनोऽन्यसक्तः ।
अस्मत्कृते च परितुष्यति काचिदन्या
धिक् तां च तं च मदनं च इमां च मां च ।।
अर्थात् - जिस स्त्री के विषय में मैं निरंतर सोचता हूं वह मुझसे विरक्त है अर्थात् मुझसे प्रेम नहीं करती है वह दूसरे मनुष्य से प्रेम करती है । परन्तु उसका प्रेमी अन्य स्त्री में आसक्त है । कोई अन्य स्त्री मुझसे सच्चा अनुराग रखती है । अतः इस स्थिति में उस स्त्री को, पुरुष को, कामदेव को,इस स्त्री (पिङ्गला) को और मुझको धिक्कार है ।
इसके पश्चात भर्तृहरि वन में जाकर तपस्वी जीवन व्यतीत करने लगे । एक बार यहीं पर उनकी भेंट योगी "गोरखनाथ" से हुई जिनसे उन्होंने योग की दीक्षा लेकर के योगाभ्यास कर अमरत्व को प्राप्त किया ।
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