नीतिशतक श्लोक संख्या 6

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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neetishatak 6

व्यालं बालमृणालतन्तुभिरसौ रोद्धुंसमुज्जृम्भते
छेत्तुं वज्रमणिं शिरीषकुसुमप्रान्तेन संनह्यते ।
माधुर्यं मधुबिन्दुना रचयितुं क्षाराम्बुधेरीहते
नेतुं वाञ्छति यः खलान् पथि सतां सूक्तैः सुधास्यन्दिभिः ॥६॥

छ्न्द :- शार्दूलविक्रीडित ( लक्षण- सूर्याश्वैर्मसजस्ततः सगुरवः शार्दूलविक्रीडितम् । अर्थात् मगण,सगण,जगण,सगण,तगण,तगण तथा गुरु के क्रम से १९ वर्ण । १२,७ पर यति ।)
अलङ्कार :- निदर्शना (लक्षण- अभवन्वस्तुसम्बन्धः उपमापरिकल्पितः । अर्थात् जहां वस्तु का असम्भव सम्बन्ध उपमा का परिकल्पक होता है ।

हिन्दी अनुवाद :-
  जो अमृत वर्षा करने वाली सूक्तियों द्वारा दुष्टों को सज्जनों के रास्ते पर ले जाने की इच्छा करता है, वह निश्चय ही नवीन कमल नाल के तंतुओं से दुष्ट हाथी को रोकने अथवा वश में करने की इच्छा करता है, शिरीष के फूल की कोर से हीरे को काटना चाहता है, शहद की एक बूंद से समुद्र के खारेपन को मधुरता में बदल देना चाहता है ।
      यहां कवि के कथन का अभिप्राय है कि बलशाली हाथी जैसा जीव जो मजबूत राशियों से भी बांधा नहीं जा सकता है, ऐसे पशु को भला कोमल विश्व तंतुओं से कैसे बांधा जा सकता है । जिस हीरे को बड़े-बड़े हथौड़े की चोट से भी तोड़ा नहीं जा सकता उसे भला शिरीष के फूल की कोर से कैसे काटा जा सकता है । पृथ्वी पर विद्यमान समुद्र की अथाह जल राशि खारे पानी वाली है उसे भला शहीद की एक बूंद से कैसे मीठा बनाया जा सकता है, अर्थात् यह संभव नहीं है । उसी प्रकार जड़ व्यक्ति को उसके दुराग्रह से कोमल सूक्ति वचनों द्वारा हटाया नहीं जा सकता है । विद्या सदैव सत्पात्र में ही फलीभूत होती है । कुपात्र से उसका कोई भी फल नहीं होता है ।

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