नीतिशतक श्लोक संख्या 8

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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neetishatak 8
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यदा किञ्चिज्ज्ञोऽहंंद्विप इव मदान्धः समभवं
तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदलिप्तं मम मनः ।
यदा किञ्चित्किञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतं
तदा मूर्खोऽस्मीति ज्वर इव मदो मे व्यपगतः ।।

हिन्दी अनुवाद-
 जब मैं थोड़ा जानकार था, अल्पज्ञ था, तो मतवाले हाथी के समान अहंकार के कारण अंधा हो गया । तब मैं स्वयं को सब कुछ जानने वाला सर्वज्ञ समझने लगा । परंतु जब विद्वानों के सान्निध्य, सत्संग से कुछ-कुछ ज्ञान हुआ तब मैंने जाना कि मैं तो मूर्ख हूं इस प्रकार मेरा सर्वज्ञता का अभिमान रूपी ज्वर उतर गया ।
    कवि के कथन का तात्पर्य है कि अल्पज्ञान व्यक्ति के लिए अतिशय हानिकारी है और उससे भी अधिक हानिप्रद अल्पज्ञता होने पर सर्वज्ञता का अभिमान करना । ऐसा व्यक्ति तो प्रतिनिविष्ट मूढ़ जन के सदृश हो जाता है और वह हठी स्वभाव के कारण ज्ञान की ओर उन्मुख नहीं हो सकता है । अल्पज्ञ की स्थिति कूपमण्डूक जैसी तथा उसका व्यवहार "अधजल गगरी छलकत जाए" के समान हो जाता है । वस्तुतः व्यक्ति को अभिमान नहीं होना चाहिए, अभिमानशून्यता से ही व्यक्ति आगे कुछ सीख सकता है, जान सकता है । इसके लिए उसे निरंतर विद्वानों के संपर्क में रहना चाहिए । क्योंकि विद्वानों के संपर्क में रहने से वह ज्ञान के सागर से परिचित रहेगा ।

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