नीतिशतक श्लोक संख्या 10

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
0
neetishatak 10
neetishatak 10

शिरः शार्वं स्वर्गात् पशुपतिशिरस्तः क्षितिधरं

महीध्रादुत्तुङ्गादवनिमवनेश्चापि जलधिम् ।

अधोऽधो गङ्गेयं पदमुपगता स्तोकमथवा

विवेकभ्रष्टानां भवति विनिपातः शतमुखः ।।१०।।

हिन्दी अनुवाद-

यह गंगा नदी स्वर्ग से शंकर जी के सिर पर, शंकर जी के मस्तक से पर्वत पर, ऊंचे पर्वत से पृथ्वी पर, पृथ्वी से सागर में गिरी । इसी प्रकार नीचे से नीचे थोड़े स्थान पर निरंतर गिरती ही चली गई । आशय यह है कि गंगा जी की भांति विवेकभ्रष्ट लोगों का पतन सैकड़ों प्रकार से होता है अर्थात् विवेक पतित व्यक्ति जब एक बार गिरते हैं तो निरंतर गिरते ही चले जाते हैं

कवि के कथन का अभिप्राय यह है कि, सर्वोच्च स्थान से पतित हो जाना ही विवेकहीनता है । विवेक खो देने पर व्यक्ति क्रमशः अधःपतन प्राप्त करता हुआ ही नष्ट हो जाता है । गंगा पहले तो विष्णुपद में लुप्त हुई, वहां से शिवजी के मस्तक पर, शिवजी के मस्तक से हिमालय के उत्तुंग शिखर पर, वहां से पृथ्वी तल पर, पृथ्वी तल से भी सागर में जाकर उन्होंने अस्तित्व ही खो दिया अर्थात् आकाश जैसे उच्च स्थान से सागर जैसे निम्न स्थान में पहुंचकर अपना अस्तित्व समाप्त कर दिया । इससे निष्कर्ष यही निकलता है कि व्यक्ति को अपनी उन्नति के लिए तथा अधःपतन से बचने के लिए सदा विवेक या विचार शक्ति से काम लेना चाहिए । अविचारित कर्म सदा दुःखदाई ही होता है ।


एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ

thanks for a lovly feedback

एक टिप्पणी भेजें (0)

#buttons=(Accept !) #days=(20)

Our website uses cookies to enhance your experience. Learn More
Accept !
To Top