नीतिशतक श्लोक संख्या 09

SOORAJ KRISHNA SHASTRI
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bhagwat darshan
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कृमिकुलचितं लालाक्लिन्नं विगन्धि जुगुप्सितं

निरुपमरसं प्रीत्या खादन्नरास्थि निरामिषम् ।

सुरपतिमपि श्वा पार्श्वस्थं विलोक्य न शङ्कते

न हि गणयति क्षुद्रो जन्तुः परिग्रहफल्गुताम् ।।9।।

हिन्दी अनुवाद-

   कीड़ों के समूह से भरी हुई, लार से गीली, दुर्गंध वाली, घृणा योग्य, मांस से रहित, मनुष्य की हड्डी को अनुपम स्वाद के साथ आनंद से चबाता हुआ कुत्ता बगल में खड़े हुए भगवान इंद्र को भी देखकर शंका नहीं करता है इसी प्रकार क्षुद्र जीव अपने स्वीकृत या गृहीत वस्तु की तुच्छता को कुछ भी नहीं गिनता है ।

    कवि के कथन का अभिप्राय यह है कि क्षुद्र व्यक्ति स्वार्थ में अंधा होता है । वह अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए घृणित कार्य कर सकता है और घृणित कार्य के प्रति उसे किसी प्रकार की लज्जा भी नहीं होती है । वह अपने द्वारा स्वीकृत कार्य में इतना लीन रहता है कि उस समय किसी भी प्रकार की श्रेष्ठ वस्तु का भी ध्यान नहीं रहता । मानव के इस प्रभाव को कवि ने कुत्ते की वृत्ति द्वारा समझाया है । कुत्ता, जैसे कीड़ों से भरी हुई, लार से युक्त, दुर्गंध युक्त, घृणित, मांस से रहित, मानव की हड्डी को बड़े चाव से चबाता है । उसमें इसे इतना आनंद मिलता है कि हटाए जाने पर भी नहीं हटता है । यदि देवाधिदेव भी उस समय आ जाए तो भी वह हड्डी को नहीं छोड़ सकता । इसी प्रकार नीच मनुष्य भी अपने द्वारा किए जा रहे घृणास्पद कार्य के प्रति न लज्जा करता है और न उसे त्यागता है । वह स्वार्थ में इतना लीन रहता है कि उचित अनुचित का किंचित भी विवेक नहीं रहता है ।

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